रविवार, 19 अगस्त 2012

क्यूँ करते हो फिर यूँ किनारा

पथ पथ नभ छूते , व्रक्ष है मेरे कर,
जिन्हें काटके तुम सजाते हो अपना घर,
क्यूँ करते हो फिर यूँ किनारा,
माँ वसुंधरा ने तुझको है पुकारा !

लहू मेरा ये बहती जल समाये नदियाँ,
प्यास बुझा जिन्दा रखु तुझको सदियाँ,

रिश्ता














रिश्ता तोड़ता कोई नहीं, टूट जाता है,

जब हिरण्येकश्यप बाप बनके, प्रहलाद को कूट जाता है,
जब कैकयी वचन सुनके, राम दशरथ से छूट जाता है,
जब भाई कौरव बनके, लूट जाता है,
रिश्ता तोड़ता कोई नहीं, टूट जाता है,

रिश्ता तोड़ता कोई नहीं, टूट जाता है,
जब गोडसे यम बनके, आत्मा को भून जाता है,

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

आपको आजादी की शुभकामनाएँ

मै भारत आजाद, आनंद बताएँ
आपको आजादी की शुभकामानाएँ !

महंगाई की फेलती बलशाली भुजाएँ,
भूख-कुपोषण की विकराल निघाएँ,
आपको आजादी की शुभकामानाएँ !

कश्मीर पर निश-दिन सुने धाएँ-धाएँ,
आतंकी खुशियों की काटे सजाएँ,

शनिवार, 4 अगस्त 2012

"इंसान पर सितम "


दक्षिण भारत राष्ट्रमात- बेंगलौर  में प्रकाशित 22-07-12

कुंठित है आनंद मन, उठे दिल में गम,
देख इंसान का इंसान पर सितम !

रौंदे पेड़ो को और करे प्राणवायु कम ,
पर पेड़ बचावो अभियान चलाये हम,
नदियों में पानी और कूड़ा हुवा एक सम,
पर चलाये वाटर फिल्टर का सिस्टम,
देख इंसान का इंसान पर सितम !

तबाह करे दुनिया बनाके अस्त्र और बम,

उठ जा प्यारे !


यह पंक्तियाँ आजकल देरी से उठने की आदत दर्शाती हुई सबसे जल्दी उठकर सुन्दर वातावरण का आनंद उठाने को ललचाने का प्रयास है ! 
यह कविता "शब्द" गोष्ठी के मंच पर प्रस्तुत की गयी ! शब्द गोष्ठी श्रीमती सरोजा व्यास का एक सफल प्रयास है जो रचनाकारों को विशेष स्थान देता है ! 
अँधेरा दूर करके निकल आया भास्कर,
रजनी के भूप मयंक को छोड़कर,
सुरसरी पर अपनी किरणे बिखेर कर,
कौमुदी फैला मानो कर रहा है समर,
अरे ! हरी, तुरंग, कैकी, भर्मर,
अब तो देखो अपने चक्षु खोलकर !

"बरस जा ए बादल"


दक्षिण भारत राष्ट्रमात में प्रकाशित (१९-०४-१२)
"बरस जा ए बादल" 

बरसना होता है तब नहीं बरसता बादल,
यशोगान करके पंडित हो गए है पागल,
इसे टोर-टोर नारी का धुल गया है काजल,

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

मै एक भारत और मेरे कई मुखड़े !

मै एक भारत और मेरे कई मुखड़े,
कही भोज में नित रसगुल्ले, कही सूखे टुकड़े,
कही राम-भरत सा प्रेम, कही विभीषण रावन से  उखड़े,
कही विंद्ये हिमाचल वादियाँ, कही धरा के रुहु उखड़े, 
कही पतित करने गंगा बहे, कही नालो से नदियाँ उजड़े !
मै एक भारत और मेरे कई मुखड़े !


कही संस्कृति का तन पे श्रृंगार, कही तंग कपड़े,