दक्षिण भारत राष्ट्रमात में प्रकाशित (१९-०४-१२)
"बरस जा ए बादल"
बरसना होता है तब नहीं बरसता बादल,
यशोगान करके पंडित हो गए है पागल,
सुखी धरा का फट कर रह गया है आँचल,
सर, सुरसरी, सिन्धु का सुख गया है तल,
क्या अब भी बुझी नहीं तेरी रोष की अनल !
अली, कुंजर, कुरंग,तुरंग, का सुख गया तन,
अब भी क्या तेरा भरा नहीं इन्हें तडपा के मन,
नहीं हम तुम्हारे अरि, नहीं तुमसे हमें समर,
हम ही हारेंगे, क्योंकि तुम हो देवेन्द्र अजर,
तू नहीं बरसा, अरे तू नहीं बरसा अगर,
न कोकिला गाएगी,न केकी नाचेगा, न नाहेगा कुंजर !
अब तो बरस जा, सुनले पंडितो का यशोगान,
कर चमकीले नारी लोचन, बचाले खग, सुरभि की जान,
भर तल सुरसरी का, फैलादे धरा पर हरा धान,
कर शोभित गगन को, कर पियूष कल की शाम,
अब तो बरस जा, सुनले और बात आनंद से मान !!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें