यह पंक्तियाँ आजकल देरी से उठने की आदत दर्शाती हुई सबसे जल्दी उठकर सुन्दर वातावरण का आनंद उठाने को ललचाने का प्रयास है !
यह कविता "शब्द" गोष्ठी के मंच पर प्रस्तुत की गयी ! शब्द गोष्ठी श्रीमती सरोजा व्यास का एक सफल प्रयास है जो रचनाकारों को विशेष स्थान देता है !
अँधेरा दूर करके निकल आया भास्कर,
रजनी के भूप मयंक को छोड़कर,
सुरसरी पर अपनी किरणे बिखेर कर,
कौमुदी फैला मानो कर रहा है समर,
अरे ! हरी, तुरंग, कैकी, भर्मर,
मंद-मंद अनिल जा रही है गुजर,
मस्त प्रसून की महक बिखेर कर,
पादप और मंजू के पत्तो को छेड़कर,
बह रही मानो अचल चोटी से ऊपर,
अरे ! अंजू, सुरभि, अहि, कोचर,
अब तो देखो अपने चक्षु खोलकर !
उठ गयी अचला,उठ गया अक्षय अम्बर,
उठ गया देवन्द्र, उठ गया लम्बोदर,
उठ गया विहंग, उठ गया सागर,
उठ गया आनंद मनोहर द्रश्ये देखकर,
अरे ! अरविन्द, कनक, चंपा और नर,
अब तो देखो अपने चक्षु खोलकर !
रजनी के भूप मयंक को छोड़कर,
अब तो देखो अपने चक्षु खोलकर !
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