हमारे पोषक दधीची हुवे प्रथम देह्दानी,
फिर हमें अपनी ही क्षमता क्यों छुपानी ?
अब ये बात हमें पुरे जहाँ में पहुंचानी,
बढे कदम और सुने एक-दूजे की जुबानी !
शरीर देकर परहित साधनेवाले की हम चर्म,
फिर क्यों आज भूले हम त्याग का महाकर्म ?
द्वेष, भौतिकता को त्यागे, मह्रिषी से रखे शर्म,
बढे कदम और परहित,परलाभ को माने धर्म !
हम देव विष्णु को हरानेवाले की संतान,
फिर क्यों आज हम एक-दूजे से अनजान ?
बढे कदम और बने एक-दूजे की पहचान !
म्रत को सांसे देनेवाले दधीची वेध प्रथम,
फिर क्यों हमारी अभिलाषा सिमटके हुई कम ?
अदिव्त्ये, अनुपम बनने का सपना न पड़े नरम,
बढे कदम और तोड़े भरमजाल का गम !
लागी अब पूर्वो और दाधीच युवावों से आस,
गुमनामी भगा नभ छुनेका करे साहस,
अपने आनंद मन का सुक्ष्म न हो प्रयास,
बढे कदम और दोहराएँ दधीची का इतिहास !!
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