(दक्षिण भारत राष्ट्रमात-बेंगलूर, हिंदी दैनिक से ०५/०९/११ को प्रकाशित)
एक हुवे ऋषि महात्यागी, बलशाली, ज्ञानी
थे पौत्र ब्रह्मा के, ऋषि अथर्वा की निशानी
भाद्र मास की शुक्ल अष्टमी जन्म जगजानी
नाम रखा दधिची, बड़े तेजश्वी, बलशाली !
ऋषि दधिची की वेदवती जीवन संगनी बनी
महा-शिव रचित शरश्वेत तीर्थ तपस्थली बनी
एक बार ऋषि से मित्र राजा छुवा की ठनी
प्रसंग था ब्राहमण श्रेष्ठ या क्षत्रिये बलवानी !
पहले जीता राजा, पाए दधिची शुक्रचार्ये से संजीवनी
तब दधिची ने की शिव आराधना, बने वज्र्शाली
जब हारे छुवा और विष्णु, हुवे ब्राह्मन गौरव-शाली
नारायण कवच प्रदान कर, विष्णु ने ब्रह्मशक्ति जानी !
सब देख इन्द्र हुवे प्रसन्न, मधुविधा दे दिनी
वचन पाया रखेगे गुप्त, न जाने दूसरा प्राणी
लोकहित में ऋषि ने अश्वनीकुमारो की बात मानी
लगा अश्व सर, कुमारो को मधुविधा देने की ठानी !
एक बार वज्रास्त्र दधिची को सौंप देवो ने आज्ञा लीनी
सहस्त्र वर्ष उपरांत, दधिची ने शस्त्र शक्ति थी पि ली
व्रतासुर ने मचा कोहराम, जब देवो की शक्ति छिनी
तब इन्द्र ने दधिची से वज्रास्त्र की याचना किनी !
दधिची ने वज्र शक्ति तो पिली, पर देवो को अस्थि दिनी
अस्थिदान पूर्व देव, तीर्थ, ऋषि दर्शन विनती किनी
फिर दर्शन धरा नैमिशारण्ये-मिश्रित तीर्थ स्थली बनी
व्रतासुर मरा, जब दधिची की अस्थियो से वज्रशक्ति बनी !
पुत्र पिप्पलाद हुवे, दधिची बने विश्व प्रथम देह्दानी,
आनंद मन की रचना, दधीचो में इतिहास बनी !
This poem is known to be world's first complete poem on Maharishi Dadhichi. This was published on Dadhich Jayanti day of 2011 in "Dakshin Bharat Rashtramat" a hindi daily from bangalore and also from Sanatan darpan a monthly hindi edition.
जवाब देंहटाएं